Thursday, March 27, 2014

ख़्वाब -






नीलाभवर्ण बादलों में छिपी बूँदें 
वे ख़्वाब हैं 
जो देखे थे हमने 
कभी झील के किनारे उस बेंच पर 
कभी बारिश में ठिठुरते हुए 
तो कभी 
तुम्हारी छूटती ट्रेन को दौड़कर पकड़ते हुए 

सोचा न था कभी 
वाष्प बन 
वह हो जायेंगे दूर 
हमारी पहुँच के परे 

लेकिन 
संवेदनाओं की नमी
उन्हें दूर न रख सकी 
अब्र कणों से फिर बिछ गए  
चहुँ ओर......


9 comments:

  1. हार्दिक आभार तुषारजी

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  2. हार्दिक आभार राजेंद्र कुमारजी

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    1. आपका हार्दिक आभार शास्त्रीजी

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  4. सुन्दर रचना।
    पढ़कर अच्छा लगा।

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    1. आपका हार्दिक आभार शास्त्रीजी

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    1. आपका हार्दिक आभार ..!

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  6. वाह ... किसी भी रूप में बस ख्वाब तो हैं ...

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