Thursday, March 26, 2015

इष्टाबाई




मुंबई की बारिश .....जब बरसनी शुरू होती है तो महीने महीने भर सूरज के दर्शन नहीं हो पाते.....नदी नाले परनाले सब पूरे उफान पे होते हैं ... लेकिन जीवन फिर भी नहीं रुकता ....घुटने घुटने पानी में भी बच्चे स्कूल जाते हैं और रेलवे ट्रैक्स में पानी भरने के बावजूद लोग ऑफिस जाना नहीं छोड़ते ........
ऐसी ही भयानक बारिश की वह रात थी.....बहोत देर हो चुकी थी ...पर दशरथ का कोई अता पता नहीं था. वह शाम से ही घर से गायब था. इष्टा घर पर परेशान उसका इंतज़ार कर रही थी ......रात गहराती जा रही थी और  बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी …. उसका सब्र छूटता जा रहा था ....जब अंदेशे हावी होने लगे और अनर्थों की झड़ी लगने लगी तो उससे रहा नहीं गया और वह एक छिदहा छाता लिए उस तूफानी रात में उसे खोजने निकल पड़ी.
मोहल्ले की हर वह हौली..जहाँसे वह दशरथ को अनेकों बार उठाकर लायी थी ....सभी यार दोस्तों के ठिकाने जो उसके पीने के साथी थे ......हर वह जगह जहाँ उसके होने का ज़रा भी अंदेशा हो सकता था , उसने छान मारा , पर दशरथ का कहीं पता न था .....वह रोती हुई ..लगभग चीखती हुई ...उस बारिश में उसका नाम ले लेकर पुकार रही थी ...पर दशरथ नदारद ..... वह रोती रोती परेशान बेहाल ..... उसे ढूंढ ही रही थी जब घर के पास वाले एक गटर में वह उसे पड़ा मिला ....जगह जगह कटा फटा .... उसे इस हाल में देख उसका कलेजा मुँह को गया ...
कहीं...!आशंका ने फन उठाया.....
नहीं नहीं. उसने फन को कुचल दिया.
उसे पहले हौले से हिलाया डुलाया ...वह नहीं बोला. फन में फिर हरकत हुई. उसने उसपर फिर वार किया.. दशरथ उठ रे”, वह उसे झकझोरते हुए चीखी ......तभी कुछ हलचल हुई और वह नशे में बड़बड़ाया.
इष्टा की जान में जान आयी. “रे देवा दया कर
जब वह आश्वस्त हो गयी की वह ज़िंदा है, तब भीतर दबा सैलाब गालियाँ बनकर दशरथ पर बरसा.
अरे मेल्या कायको मेरा जीवन सत्यानास करता है रे ......"इद्दर दारू पीकर गटर में पड़ा है और मैं अक्खा कालोनी में ढूंढ़ती तेरे को ......मेरे को एक इच बार में मार डाल रे , नइ तो तूच मर जा ......मेरे जीव के पीछे कायको पड़ा है ? "
और नशे में धुत दशरथ सुनता रहा. उसके प्रलाप का उसपर कोई असर नहीं हो रह था. भड़ास कम हुई तो उसे सहारा दे, भीगती हुई, उसे छाते के नीचे बारिश से बचाती हुई, लड़खड़ाती, संभालती किसी तरह घर पहुंची .

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 मूसलाधार बारिश हो रही थी . इंद्र का प्रकोप हावी था. भरी दोपहरी में भी  रात का अंदेशा हो रहा था.   देखते ही देखते घुटनों तक पानी भर गया . तभी किसी को गेट से आते हुए देखा. धूमिल आकृतियों से अंदाज़ा लगाया कि तेज़ हवाओं से अस्त व्यस्त छाते को जैसे तैसे संभालती हुई कोई औरत, बारिश और हवा के थपेड़ों से, अपने आप को बचाती हुई, बगल में कोई १४, १५ साल के बीमार लड़के को भींचे हुए इसी और आ रही थी.
दरवाज़े की घंटी बजी.
“अरे इष्टा तुम ...और यह कौन है ....?"
मेरा मरद है दीदी
कौन दशरथ ..उसे क्या हुआ”
"अरे दीदी मई अब क्या बोलूँ....दारु पीके नाली में पड़ा था मेल्या ....कब्बी से ढूँढती थी उसकू. अब्बी डॉक्टर के पास जाती ...लई  चोट लगा है उसकू." दीदी मई आज दोफेर को काम पे नै आएगी...बस इतना इच बताने को आयी थी "
दशरथ की हालत और उससे अधिक इष्टा की चिंता देख , कुछ और कहना उचित नहीं समझा


एक दिन काम पर आई तो देखा चेहरा सूजा हुआ है और एक आँख नीली हुई पड़ी थी.पूछने पर पहले तो बात को टालती रही , लेकिन जब डाँटा, तो रोती हुई बोली- "दीदी दशरथ का लीवर ख़राब हो गयेला है ...डॉक्टर मेरे को बोला , अउर दारु पियेगा तो मर जायेगा . मई उसको मना की दारु पीने को .....वह दारु का वास्ते पईसा मांगता था ..मई नई दी बोलके मेरेको बहोत मारा स्साला...."..कहकर फिर रोने लगी ..
मैंने कहा , "वह बित्ते भरका आदमी तुमको मारता कैसे है ..तुम इतनी हट्टी कट्टी..लम्बाई में उससे दुगुनी..क्यों मार खाती हो  ?"
इष्टा पहले तो चुपचाप मेरी बात सुनती रही फिर धीरे से बोली, "क्या करूँ दीदी ...वह देखने में छोटा है पर लै( बहोत) मारता है मेरे को ....दारु पी पीकर वाट लगाकर रखा है अक्खा शरीर का, मई मारेगी तो मर इच  जायेगा वह . रोज दारु पीकर आता है और छोटा छोटा बात पे खाली फ़ोकट झगड़ा करता है ...मई कुछ बोलती तो बहुत मारता है ...काम पे बी जाने को नई देता ...बोलता है बाहर जाके उल्टा सीधा काम करती "...कहते कहते फूटकर फूटकर इष्टा रोने लगी..........उसकी बेबसी चुभ गयी भीतर तक ...इष्टा जैसी न जाने कितनी हमारे मोहल्लों में, झोपड़ पट्टी में, रहती हैं दिन भर काम कर कर हलकान भी रहती है और, ऐसे निखट्टू, नालायक पतियीं की लात घूंसे और बातें  भी बर्दाश्त करती हैं.
रोकर मन कुछ हल्का हुआ तो बोली, " दीदी काम पे नई जायगी तो घर कईसे चलाएगी ...दो छोटा छोटा बच्चा है , लड़की पण सायानी हो गयी ...लगन करने का है उसका ...कईसे करूँ..आपीच  बोलो ."
इष्टा का यह हाल देख खून खौल कर रह गया .....हिम्मत कैसे होती है इन लोगों की .....खुद तो कुछ करते नहीं ...धरती पर बोझ .....और अपनी पत्नी पर इतना गन्दा लांछन लगाते हुए ज़बान नहीं काँपती? ......इतनी घटिया बात सोच भी कैसे सकते हैं? वह औरत तुम्हारा घर चला रही है , तुम्हारे बच्चे पाल रही है  ......ऐसे लोगों को तो ......और फिर अचानक इष्टा का चेहरा आँखों के सामने गया ..उसके चेहरा जैसे इल्तिजा कर रहा था ...दीदी जाने दो .
लेकिन गुस्सा बहोत रहा था , दशरथ पर, और उससे ज़्यादा इष्टा पर !
इष्टा के जाने के बाद उसकी बातें बहोत देर तक दिमाग उलझाती रहीं …… रह रहकर बस एक ही ख़याल आता .... यह कैसी कौम है ...सारा काम औरत करे, घर वह चलाये, बच्चे वह संभाले , राशन पानी का इंतजाम वह करे ....पति की ज़रूरतें पूरी करे ....और दिन भर बाहर मेहनत करने के बाद पति से मार भी खाए ...और उसपर तुर्रा यह कि तुम उलटे सीधे कामोंसे पैसे कमाती हो...छी :....कितनी नीच सोच है इस कौम की ......पिस्सू कहीं के ....!!!!..बस कमाऊ बीवी पर हुकुम चलाने, मारने पीटने में ही अपनी मर्दानगी दिखाना चाहते हैं . अगर मर्द होने का इतना ही गुमान है तो क्यों नहीं अपनी ज़िम्मेदारी उठाते. रखें बीवी को घर पर, कमाएँ चार पैसे और बीवी के हाथ पर धर दें . लेकिन नहीं,  उनकी मर्दानगी केवल अपनी बीवी को दबाकर रखने में है. पैरासाइट हैं यह पूरी कौम .... पिस्सू कहीं के ...!!!
पिस्सू ...जो उसीका खून पीते हैं ...जिसके शरीर पर पलते हैं. ..दशरथ भी उसी कौम का था.

एक बार बातों ही बातों मैंने पूछा था उससे की "क्या आराम हैं तुझे इससे ...तू ही कमाकर उसे खिलाती हैं , घर काम करती हैं , चार पैसे कमाती हैं, जो वह मार पीटकर तुझसे छीन लेता हैं....कौनसा आराम हैं तुझे उससे . उसपर मरहम पट्टी का खर्चा अलग."
इष्टा बोली , "दीदी जैसा बी हैं ...मरद तो हैं . एकली औरत नई रह सकती इस दुनिया में . बहुत गन्दा लोग हैं दीदी . एकली ..उपरसे गरीब . तुम्हीच सोचो दीदी झोपड़पट्टी में रहती मै. मरद हैं बोलके , यह टिकुली, यह मंगलसूत्र दीखता लोगों को . एक मरदवाली हूँ बोलके कोई जल्दी नई बोलता मेरे को  पर एकली हो गयी तो गिद्ध का माफक खा जायेंगे मेरेकू."
इष्टा के जाने के बाद काफी देर तक उसका यह तर्क, दिमाग में उथल पुथल मचाता रहा . अपने लहज़े में एक बहुत कड़वा सच कह गयी थी वह ...जो  विद्रूप था घिनौना था, असहनीय था और जिसके आगे हम सब बेबस हैं . यह सिर्फ इष्टा का सच नहीं था ....यह उस समाज का सच था, उस की मानसिकता का सच था, जिसमें हम रहते हैं.
हम अपने आपको प्रबुद्ध वर्ग की श्रेणी में रखते हैं...क्या हमारी भी कुछ ऐसी हो सोच नहीं है ?
हाँ शायद हमारे शब्द उसकी तरह क्रूड हों  लेकिन सच्चाई तो उतनी ही क्रूड है . यहाँ एक डाइवोर्सी या विधवा का ठप्पा किसी औरत पर लग जाये तो लोग उसे 'फ्री फॉर आल' समझने लगते हैं . फिर तपका चाहे जो भी हो ..मानसिकता तो वही रहेगी . पति का नाम एक लक्ष्मण रेखा है ...जिसे  शरीफ लांघने से डरते हैं ...विकृत मानसिकता के आगे तो कोई भी दीवार नहीं टिक सकती ...फिर      एक लकीर की क्या औकात .नियम तो सदा शरीफों के लिए ही बने हैं...दानवों के लिए नहीं  ...और ऐसे में हर कदम फूँक- फूँक कर रखना होता हैं , ख़ास तौर पर हम औरतों को. और इष्टा वह तो सुन्दर भी थी , साँवली, सलोनी, जब मुस्कुराती तो सफ़ेद दांतों की पंक्ति खिल जाती .उसपर उसका स्वाभाव .....इस सबके बावजूद भी हमेशा खुश दिखाई देती ...उसे देख मायूस चेहरे के भी कोंटूर्स बदल जाते. उसे अपने आपको सुरक्षित रखना था.
ऐसे में पति के नाम का यह कवच  हर औरत चाहती है . इष्टा भी चाहती  थी.
फिर कहाँ गलत थी इष्टा. वह समाज के जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी , उनके लिए तो तो दो जून रोटी मुहैया करने की चिंता ही इतनी बड़ी थी की सारी जद्दो जेहद वहीँ तक आकर सिमट जाया करती थी . उन्हें भला जीवन की बारीकियों से क्या वास्ता.
उस अनपढ़ कामवाली बाई ने जीवन की एक बहोत बड़ी सच्चाई मेरे सामन उघाड़ कर रख दी थी. वह सच जिसे हम झूठे आश्वासनों में भुलाये रहते हैं. कितना आसान होता हैं दूसरों को नसीहत देना लेकिन हम सब भी तो काफी हद तक इसी सच्चाई को ढो रहे हैं.
सरस
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